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स॒प्तार्ध॑ग॒र्भा भुव॑नस्य॒ रेतो॒ विष्णो॑स्तिष्ठन्ति प्र॒दिशा॒ विध॑र्मणि। ते धी॒तिभि॒र्मन॑सा॒ ते वि॑प॒श्चित॑: परि॒भुव॒: परि॑ भवन्ति वि॒श्वत॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saptārdhagarbhā bhuvanasya reto viṣṇos tiṣṭhanti pradiśā vidharmaṇi | te dhītibhir manasā te vipaścitaḥ paribhuvaḥ pari bhavanti viśvataḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒प्त। अ॒र्ध॒ऽग॒र्भाः। भुव॑नस्य। रेतः॑। विष्णोः॑। ति॒ष्ठ॒न्ति॒। प्र॒ऽदिशा॑। विऽध॑र्मणि। ते। धी॒तिऽभिः॑। मन॑सा। ते। वि॒पः॒ऽचितः॑। प॒रि॒ऽभुवः॑। परि॑। भ॒व॒न्ति॒। वि॒श्वतः॑ ॥ १.१६४.३६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:36 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:36


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (सप्त) सात (अर्द्धगर्भाः) आधे गर्भरूप अर्थात् पञ्चीकरण को प्राप्त महत्तत्त्व, अहङ्कार, पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश के सूक्ष्म अवयवरूप शरीरधारी (भुवनस्य) संसार के (रेतः) बीज को उत्पन्न कर (विष्णोः) व्यापक परमात्मा की (प्रदिशा) आज्ञा से अर्थात् उसकी आज्ञारूप वेदोक्त व्यवस्था से (विधर्मणि) चेतन से विरुद्ध धर्मवाले आकाश में (तिष्ठन्ति) स्थित होते हैं (ते) वे (धीतिभिः) कर्म और (ते) वे (मनसा) विचार के साथ (परिभुवः) सब ओर से विद्या में कुशल (विपश्चितः) विद्वान् जन (विश्वतः) सब ओर से (परि, भवन्ति) तिरस्कृत करते अर्थात् उनके यथार्थ भाव के जानने को विद्वान् जन भी कष्ट पाते हैं ॥ ३६ ॥
भावार्थभाषाः - जो महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चसूक्ष्मभूत सात पदार्थ हैं वे पञ्चीकरण को प्राप्त हुए सब स्थूल जगत् के कारण हैं। चेतन से विरुद्ध धर्म्मवाले जड़रूप अन्तरिक्ष में सब वसते हैं। जो यथावत् सृष्टिक्रम को जानते हैं वे विद्वान् जन सब ओर से सत्कार को प्राप्त होते हैं और जो इसको नहीं जानते वे सब ओर से तिरस्कार को प्राप्त होते हैं ॥ ३६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

ये सप्तार्द्धगर्भा भुवनस्य रेतो निर्माय विष्णोः प्रदिशा विधर्मणि तिष्ठन्ति। ते धीतिभिस्ते मनसा च परिभुवो विपश्चितो विश्वतः परिभवन्ति ॥ ३६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सप्त) (अर्द्धगर्भाः) अपूर्णगर्भा महत्तत्त्वाहङ्कारपञ्चभूतसूक्ष्मावयवाः (भुवनस्य) संसारस्य (रेतः) वीर्यम् (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (तिष्ठन्ति) (प्रदिशा) आज्ञया (विधर्मणि) विरुद्धधर्मण्याकाशे (ते) (धीतिभिः) कर्मभिः (मनसा) (ते) (विपश्चितः) विदुषः (परिभुवः) परितस्सर्वतो विद्यासु भवन्ति (परि) (भवन्ति) (विश्वतः) सर्वतः ॥ ३६ ॥
भावार्थभाषाः - यानि महत्तत्त्वाऽहङ्कारौ पञ्चसूक्ष्माणि भूतानि च सप्त सन्ति तानि पञ्चीकृतानि सर्वस्य स्थूलस्य जगतः कारणानि सन्ति चेतनविरुद्धधर्मे जडेऽन्तरिक्षे सर्वाणि वसन्ति। ये यथावत्सृष्टिक्रमं जानन्ति ते विद्वांसः सर्वतः पूज्यन्ते ये चैतं न जानन्ति ते सर्वतस्तिरस्कृता भवन्ति ॥ ३६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे महत्तत्त्व, अहंकार, पंचसूक्ष्मभूत सात पदार्थ आहेत. त्यांचे पंचीकरण होऊन ते सर्व स्थूल जगाचे कारण आहेत. चेतनविरुद्ध धर्माच्या जडरूपी अंतरिक्षात त्यांचा वास असतो. जे या यथायोग्य सृष्टिक्रमाला जाणतात त्या विद्वान लोकांचा सर्वत्र सत्कार होतो व जे त्याला जाणत नाहीत ते सर्वत्र तिरस्कृत होतात. ॥ ३६ ॥